लगी है “आग” शहर में मेरे
उसको किसकर बुझाऊँ मैं
चलों ऐ मेरे सपनों तुम्हें
किसी और शहर में ले जाऊँ मैं।
चेहरों पर नकाब ओढ़ा है सबने
किस-किस की पहचान कराऊँ मैं
बुजदिली को अपनी “जिहाद” नाम धराते है
उनकी बँदूक की नालियों को कैसे किसी ओर घुमाऊँ मैं।
उन्हें क्या पता कहाँ है जन्नत बसी हुई
ऐ जालिम आ ,जिस पिता को मारा, जिस माँ को मारा
उस अनाथ हुए बच्चे की आँखों से टपकते आँसू में,
बसे तेरे खुदा को तुझसे मिलवाऊँ मैं।
अरे नासमझ, हर खुँशी में इक नूरं औ एक खुदा है बसता
आ तुझको, हर एक मुस्कान में बसी तेरी जन्नत से मिलवाऊँ मैं।
करता जा गिनती, कितने दामन भिगोये है तूने
हर एक आह की आजा तुझको, आज सजा दिलवाऊँ मैं।
#सरितासृजना
Sayar_AV ने कहा:
शानदार
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pandeysarita ने कहा:
शुक्रिया
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Rohit Nag ने कहा:
Khoobsurat Sarita ji 👌🏻👌🏻👌🏻
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pandeysarita ने कहा:
thanks Rohit
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||PKVishvamitra|| ने कहा:
सशक्त आव्हान!!अति उत्तम!!
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pandeysarita ने कहा:
जी धन्यवाद
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theuncertainties787 ने कहा:
वाह! बहुत खूबसूरत!👌👌
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pandeysarita ने कहा:
जी आभार
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mann ने कहा:
बहुत अच्छी रचना…👍
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pandeysarita ने कहा:
आभार
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B. Someswar Rao ने कहा:
Yah aag shahron me nahi jihadi diolnme majahab ne lagayi hai.
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pandeysarita ने कहा:
जी सही कहा है आपने
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Rupali ने कहा:
Umda rachna!
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pandeysarita ने कहा:
Thanks
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